kashish

Add To collaction

लेखनी कहानी -09-Mar-2023- पौराणिक कहानिया

राजा साहब-पंडाजी, तुम इनका हाथ पकड़कर बिठा दो, यों बैठेंगे।

 

नायकराम ने सूरदास को गोद में उठाकर गद्दी पर बैठा दिया, आप भी बैठे, और फिटन चली। सूरदास को अपने जीवन में फिटन पर बैठने का यह पहला ही अवसर था। ऐसा जान पड़ता था कि मैं उड़ा जा रहा हूँ। तीन-चार मिनट में जब गोदाम पर गाड़ी रुक गई और राजा साहब उतर पड़े, तो सूरदास को आश्चर्य हुआ कि इतनी जल्दी क्योंकर गए।

 

राजा साहब-जमीन तो बड़े मौके की है।

 

सूरदास-सरकार, बाप-दादों की निसानी है।

 

सूरदास के मन में भाँति-भाँति की शंकाएँ उठ रही थीं-क्या साहब ने इनको यह जमीन देखने के लिए भेजा है? सुना है, यह बड़े धार्मात्मा पुरुष हैं। तो इन्होंने साहब को समझा क्यों दिया? बड़े आदमी सब एक होते हैं, चाहे हिंदू हों या तुर्क; तभी तो मेरा इतना आदर कर रहे हैं, जैसे बकरे की गरदन काटने से पहले उसे भर-पेट दाना खिला देते हैं। लेकिन मैं इनकी बातों में आनेवाला नहीं हूँ।

 

राजा साहब-असामियों के साथ बंदोबस्त हैं?

 

नायकराम-नहीं सरकार, ऐसे ही परती पड़ी रहती है, सारे मुहल्ले की गऊएं यहीं चरने आती हैं। उठा दी जाए, तो 200 रुपये से कम नफ़ा हो, पर यह कहता है, जब भगवान् मुझे यों ही खाने-भर को देते हैं, तो इसे क्यों उठाऊँ।

 

राजा साहब-अच्छा, तो सूरदास दान लेता ही नहीं, देता भी है। ऐसे प्राणियों के दर्शन ही से पुण्य होता है।

 

नायकराम की निगाह में सूरदास का इतना आदर कभी हुआ था। बोले-हुजूर, उस जन्म का कोई बड़ा भारी महात्मा है।

 

राजा साहब-उस जन्म का नहीं, इस जन्म का महात्मा है।

 

सच्चा दानी प्रसिध्दि का अभिलाषी नहीं होता। सूरदास को अपने त्याग और दान के महत्व का ज्ञान ही था। शायद होता, तो स्वभाव में इतनी सरल दीनता रहती, अपनी प्रशंसा कानों को मधुर लगती है। सभ्य दृष्टि में दान का यही सर्वोत्ताम पुरस्कार है। सूरदास का दान पृथ्वी या आकाश का दान था, जिसे स्तुति या कीर्ति की चिंता नहीं होती। उसे राजा साहब की उदारता में कपट की गंधा रही थी। वह यह जानने के लिए विकल हो रहा था कि राजा साहब का इन बातों से अभिप्राय क्या है।

 

नायकराम राजा साहब को खुश करने के लिए सूरदास का गुणानुवाद करने लगे-धार्मावतार, इतने पर भी इन्हें चैन नहीं है। यहाँ, धर्मशाला, मंदिर और कुआँ बनवाने का विचार कर रहे हैं।

 

राजा साहब-वाह, तब तो बात ही बन गई। क्यों सूरदास, तुम इस जमीन में से 9 बीघे मिस्टर जॉन सेवक को दे दो। उनसे जो रुपये मिलें, उन्हें धर्म-कार्य में लगा दो। इस तरह तुम्हारी अभिलाषा भी पूरी हो जाएगी और काम भी निकल जाएगा। दूसरों से इतने अच्छे दाम मिलेंगे। बोलो, कितने रुपये दिला दूँ?

 

नायकराम सूरदास को मौन देखकर डरे कि कहीं यह इनकार कर बैठा, तो मेरी बात गई! बोले-सूरे, हमारे मालिक को जानते हो , चतारी के महाराज हैं, इसी दरबार से हमारी परवरिस होती है। मिनिसपलटी के सबसे बड़े हाकिम हैं। आपके हुक्म बिना कोई अपने द्वार पर खूँटा भी नहीं गाड़ सकता। चाहें, तो सब इक्केवालों को पकड़वा लें, सारे शहर का पानी बंद कर दें।

 

सूरदास-जब आपका इतना बड़ा अखतियार है, तो साहब को कोई दूसरी जमीन क्यों नहीं दिला देते?

 

राजा साहब-ऐसे अच्छे मौके पर शहर में दूसरी जमीन मिलनी मुश्किल है। लेकिन तुम्हें इसके देने में क्या आपत्ति है? इस तरह जाने कितने दिनों में तुम्हारी मनोकामनाएँ पूरी होंगी। यह तो बहुत अच्छा अवसर हाथ आया, रुपये लेकर धर्म-कार्य में लगा दो।

 

सूरदास-महाराज, मैं खुशी से जमीन बेचूँगा।

 

नायकराम-सूरे, कुछ भंग तो नहीं खा गए? कुछ खयाल है, किससे बातें कर रहे हो!

 

सूरदास-पंडाजी, सब खियाल है, आँखें नहीं हैं, तो क्या अक्किल भी नहीं है! पर जब मेरी चीज है ही नहीं, तो मैं उसका बेचनेवाला कौन होता हूँ?

 

राजा साहब-यह जमीन तो तुम्हारी ही है?

 

सूरदास-नहीं सरकार, मेरी नहीं, मेरे बाप-दादों की है। मेरी चीज वही है, जो मैंने अपने बाँह-बल से पैदा की हो। यह जमीन मुझे धारोहर मिली है, मैं इसका मालिक नहीं हूँ।

 

राजा साहब-सूरदास, तुम्हारी यह बात मेरे मन में बैठ गई। अगर और जमींदारों के दिल में ऐसे ही भाव होते, तो आज सैकड़ों घर यों तबाह होते। केवल भोग-विलास के लिए लोग बड़ी-बड़ी रियासतें बरबाद कर देते हैं। पंडाजी, मैंने सभा में यही प्रस्ताव पेश किया है कि जमींदारों को अपनी जायदाद बेचने का अधिकार रहे, लेकिन जो जायदाद धर्म-कार्य के लिए बेची जाए, उसे मैं बेचना नहीं कहता।

 

सूरदास-धारमावतार, मेरा तो इस जमीन के साथ इतना ही नाता है कि जब तक जिऊँ, इसकी रक्षा करूँ, और मरूँ, तो इसे ज्यों-की-त्यों छोड़ जाऊँ।

 

राजा साहब-लेकिन यह तो सोचो कि तुम अपनी जमीन का एक भाग केवल इसलिए दूसरे को दे रहे हो कि मंदिर बनवाने के लिए रुपये मिल जाएँ।

 

नायकराम-बोलो सूरे, महाराज की इस बात का क्या जवाब देते हो?

 

सूरदास-मैं सरकार की बातों का जवाब देने जोग हूँ कि जवाब दूँ? लेकिन इतना तो सरकार जानते ही हैं कि लोग उँगली पकड़ते-पकड़ते पहुँचा पकड़ लेते हैं।

 

   0
0 Comments